EPS95
पेंशनरों का दुर्भाग्य
मुद्दे चाहे कितने भी जनउपयोगी क्यूँ न हो,वो राजनीति चमकाने का आमोद शस्त्र के रूप में ज्यादा जाना जाने लगा है,विपक्ष का सारा कार्यकाल खिसयानी बिल्ली की तरह खंबा नोचने में निकल जाता है इसी दौरान कभी कभी बिल्ली के भाग्य से छिका भी टूट जाता है,और सत्ता नशीन पार्टी को मुँह के बल गिरने में कामयाबी भी मिल जाती है।असल मुद्दा हर किसी का सत्ता पाने का ही होता है,जब कोई मुद्दा ही न रहे तो जनता से क्या मुँह ले कर वोट की गुहार लगाई जा सकती है।मुद्दा बाद में चल कर मुद्दा ही रह जाता है..
उदाहरण आपके सामने है...प्रकाश जावेडकर का।हमारा दुर्भाग्य पहले की कौन कहे कभी भी राजनीति का मुद्दा नही रहा है ।किसी भी पार्टी के मेनोफेस्टो में पेंशन का मुद्दा किसी को शायद ही कहीं कभी दिखाई दिया हो।देश में जब भी कोई कानून या नियम बनाये जाते है,वो सिर्फ और सिर्फ आम नागरिकों के हित को देख कर बनाये जाते हैं,कभी जब लगता है कि कानूनों का जनहित पर विपरीत असर पड़ रहा है तो देश के संविधान में विधानपालिका को अधिकार दे रखा है कि उसमें जोड़ घटा कर संशोधन कर लेवे,नया कानून बना लेवे,या पूर्ण रूप से उसे रद्द भी कर देवे।
यही हाल उच्च पेंशन के मामले में भी है कि EPS 95 में जो भी प्रावधान कानूनी रूप से रहे है उसमें EPFO ने अवैधानिक रूप छेड़छाड़ कर बदल दिए जिससे लाखों लोगों को उक्त नियम से मिलने वाले लाभ से वंचित कर दिया गया।
अनेक न्यायलयों ने भी यही माना भी है और आदेश भी जारी किया गए,पर सरकार इसमें अपना स्वम् का अहित साबित करने में जुटी हुई है।खुद के बनाये EPS95 को मानने को तैयार नहीं।यही वजह है कि पेंशनरों का एक वर्ग सड़क की लड़ाई को उचित मान कर संघर्ष का रास्ता अपनाए हुए है,और दूसरा न्यायालय की शरण में।दोनों ही वर्ग अपनी अपनी जगह सहीं है,गलत सिर्फ इतना है कि कोई मानने को तैयार नहीं कि उनकी समस्या की जड़ सरकार और उनके नुमाइंडियों में ही छुपी हुई है, और दूसरी समस्या सबका एकजुट नहीं होना ही है।
आज सबको एक सशक्त मुद्दी बांधने की जरूरत है..वरना उचित पेंशन पाना एक सपना ही बन कर रह जाना है।
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